भारतीय जनजातियों के लिए भविष्य की सुरक्षा
(Call for Permanent Settlement for Tribals – The Hindu आधारित)Securing the Future for Indian Tribes
भूमिका
जनजातीय समुदाय भारत की सांस्कृतिक विविधता, जैविक संपदा और ग्रामीण विकास का अभिन्न हिस्सा हैं। फिर भी, ये समुदाय ऐतिहासिक रूप से उपेक्षा, विस्थापन और अधिकारों के हनन का सामना करते रहे हैं। 2005 में छत्तीसगढ़ से लगभग 50,000 गोंड जनजातियों को नक्सल विरोधी रणनीति के तहत जबरन विस्थापित किया गया, और आज तक वे न तो अपनी जमीनों पर लौट सके हैं, न ही नए क्षेत्रों में कानूनी मान्यता प्राप्त कर सके हैं। यह स्थिति पूरे देश में फैले आदिवासी समुदायों के समक्ष मौजूद गंभीर संकट को उजागर करती है।
जनजातियों की भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक और विकासात्मक ताने-बाने में भूमिका
1. सांस्कृतिक धरोहर का संरक्षण
- गोंड, भील, वारली जैसे समुदाय लोककला, परंपराओं और लोककथाओं के संरक्षण में योगदान देते हैं।
- वारली चित्रकला और गोंड कला आज वैश्विक स्तर पर पहचानी जा रही हैं।
- इनकी जीवनशैली आधुनिकता की समरूपता के विरुद्ध संतुलन प्रदान करती है।
2. पर्यावरण संरक्षण और पारंपरिक ज्ञान
- जंगलों में रहने वाले जनजाति समुदाय जैव विविधता के रक्षक हैं।
- डोंगरिया कोंध जनजाति ने नियामगिरी पहाड़ियों को खनन से बचाया, जबकि बस्तर में कई आदिवासी समुदाय खनन के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं।
3. कृषि में योगदान
- मुण्डा जनजाति जैसे समुदाय मिश्रित खेती, जैविक खाद और परंपरागत पद्धतियों द्वारा सतत कृषि को बढ़ावा देते हैं।
4. आर्थिक क्षेत्र में उद्यमिता
- ट्राइफेड (TRIFED) और वाणिज्यिक मेलों के माध्यम से आदिवासी उत्पादों को वैश्विक बाज़ार में स्थान मिल रहा है।
- वन उत्पाद, हस्तशिल्प, जड़ी-बूटियाँ इनकी आमदनी के मुख्य स्रोत हैं।
5. राष्ट्रीय सुरक्षा और विकास में भागीदारी
- विस्थापित गोंड आदिवासी अब सुरक्षा बलों के सहयोगी बन चुके हैं और माओवादी उग्रवाद से लड़ने में सहायता कर रहे हैं।
6. राष्ट्रीय पहचान और विविधता को समृद्ध करना
- जनजातीय त्योहार, भाषा और परंपराएँ भारत की बहुलतावादी संस्कृति की पहचान हैं।
- “जनजातीय गौरव दिवस” और आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी संग्रहालय उनकी विरासत को सम्मानित करते हैं।
जनजातीय समुदायों के समक्ष प्रमुख चुनौतियाँ
1. भूमि से बेदखली और विस्थापन
- खनन, परियोजनाओं और शहरीकरण ने आदिवासियों को उनकी भूमि से बेदखल कर दिया है।
- कोया जनजाति जैसे समुदायों की जमीनें सूदखोरों द्वारा हड़प ली गईं।
2. शिक्षा और कौशल की कमी
- एकलव्य मॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS) के बावजूद गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की भारी कमी है।
- PVTG के लिए 5% कोटा भी पूरी तरह लागू नहीं हो पाया है।
3. स्वास्थ्य समस्याएँ और कुपोषण
- एनीमिया की दर 59.9% से 64.6% तक बढ़ी है।
- 40% से अधिक 5 वर्ष से कम आयु के बच्चे अविकसित (stunted) हैं।
4. आर्थिक शोषण और गरीबी
- मैनुअल लेबर और जंगल पर निर्भरता के कारण आर्थिक असुरक्षा बनी रहती है।
- ट्राइफेड जैसी योजनाओं के बावजूद बाजार तक पहुंच सीमित है।
5. सांस्कृतिक क्षरण और पहचान संकट
- वारली जैसी जनजातियों की युवा पीढ़ी आधुनिक पेशों में रुचि ले रही है, जिससे पारंपरिक कला विलुप्त हो रही है।
6. पर्यावरणीय क्षरण और संसाधनों की कमी
- जंगल कटाई और खनन से महुआ, तेंदू जैसे वन उत्पादों की उपलब्धता घट रही है।
7. वन अधिकार अधिनियम (FRA) का कमजोर क्रियान्वयन
- गुजरात जैसे राज्यों में 40% से अधिक दावों को अस्वीकार कर दिया गया है, उपग्रह चित्रों के आधार पर गलत निर्णय लिए जा रहे हैं।
जनजातीय कल्याण हेतु प्रमुख सरकारी प्रयास
1. कानूनी पहल
- वन अधिकार अधिनियम (2006) और पेसा अधिनियम (1996) जैसे कानून समुदायों को संसाधनों पर स्वामित्व और स्वशासन का अधिकार देते हैं।
2. फ्लैगशिप योजनाएँ
- PM-JANMAN: PVTG के लिए बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ्य पर ध्यान।
- धर्ती आबा अभियान: 63,000 गाँवों में ₹79,150 करोड़ का निवेश।
- EMRS: जनजातीय छात्रों के लिए नवोदय स्तर की शिक्षा।
3. स्वास्थ्य और पोषण
- सिकल सेल एनीमिया मिशन (2023), स्वास्थ पोर्टल, मिशन इन्द्रधनुष, निक्षय मित्र आदि।
4. आर्थिक सशक्तिकरण
- वंदन योजना, न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) योजना, NSTFDC और TRIFED के माध्यम से आजीविका।
आगे का मार्ग: जनजातीय समुदायों का सशक्तिकरण कैसे करें?
1. शिक्षा और व्यावसायिक प्रशिक्षण
- एकलव्य विद्यालयों को और सशक्त बनाना, स्थानीय भाषा और संस्कृति को पाठ्यक्रम में शामिल करना।
2. भूमि सुधार और FRA का कार्यान्वयन
- सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों (Godavarman Case) और Xaxa समिति की सिफारिशों को लागू करना।
- महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देना।
3. आर्थिक आत्मनिर्भरता और उद्यमिता
- विशेष रूप से PVTG के लिए वित्तीय सहायता, बाजार तक डिजिटल पहुंच, सहकारी समितियाँ।
4. राजनीतिक प्रतिनिधित्व और स्थानीय शासन
- पेसा के अंतर्गत पंचायतों और जनजातीय परिषदों को सशक्त बनाना।
5. समावेशी स्वास्थ्य प्रणाली
- भारतनेट द्वारा टेलीमेडिसिन, मोबाइल स्वास्थ्य इकाइयाँ और स्थानीय स्वास्थ्यकर्मी प्रशिक्षण।
6. संस्कृति संरक्षण और राष्ट्रीय एकीकरण
- आदिवासी कलाओं, भाषाओं, त्योहारों को राष्ट्रीय मंच पर प्रोत्साहन देना।
7. जलवायु परिवर्तन और पारिस्थितिक संरक्षण
- वन प्रबंधन, जल संरक्षण, स्थायी कृषि के माध्यम से पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटना।
8. कानूनी संरक्षण और शोषण के विरुद्ध उपाय
- भूमि हड़पने वालों पर सख्त कार्यवाही, परियोजनाओं के लिए पूर्व सहमति अनिवार्य बनाना।
निष्कर्ष
भारत की जनजातियाँ सिर्फ जनसंख्या का हिस्सा नहीं, बल्कि इसकी आत्मा हैं। उन्हें सशक्त करने के लिए सिर्फ योजनाएँ नहीं, बल्कि इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। सतत विकास लक्ष्यों (SDGs) – गरीबी हटाओ (SDG 1), गुणवत्तापूर्ण शिक्षा (SDG 4), असमानता घटाओ (SDG 10), और भूमि पर जीवन (SDG 15) – को आदिवासियों के जीवन में उतारना ही सही मायनों में समावेशी भारत की दिशा में कदम होगा।
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